केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ 40 किसान संगठन 83 दिन से आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन के लंबा चलने और देश के अलग अलग हिस्सों में इसका विस्तार होने से इसकी ज्यादा चर्चा होनी चाहिए थी पर हकीकत यह है कि पिछले करीब 20 दिन से यह आंदोलन चर्चा से बाहर है। आखिरी बार गणतंत्र दिवस के दिन गलत कारणों से आंदोलन चर्चा में रहा। उसके बाद दो दिन तक उसी बात को लेकर मीडिया में निगेटिव चर्चा चलती रही। दो दिन बाद 28 जनवरी को किसान आंदोलन का एक तरह से पुनर्जन्म हुआ लेकिन उसकी वह रंगत नहीं लौटी, जो पहले थी।
इसका असली कारण यह है कि राजनीतिक दलों ने समानांतर आंदोलन शुरू कर दिया। पहले दिन राकेश टिकैत ने कहा कि पार्टियां इसस राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश न करें। जब तक ऐसा लग रहा था कि पार्टियां इससे दूर हैं और राजनीतिक लाभ के लिए आंदोलन का इस्तेमाल नहीं हो रहा है तब तक आंदोलन की रौनक अलग थी, उसमें शामिल लोगों का जोश, उत्साह अलग था और उसमें ऐसा भाव था कि वह आजादी की लड़ाई के जैसा आभास दे रहा था लेकिन अब यह एक रूटीन की घटना बन गई है और मीडिया में आंदोलन से ज्यादा फोकस पार्टियों की किसान पंचायतों पर होने लगा है। हो सकता है कि पहले दिन से किसान आंदोलन को हाशिए में डालने के प्रयास में लगे मीडिया समूहों को पार्टियों की किसान पंचायत से मौका मिल गया हो।
बहरहाल, 26 जनवरी के बाद से अचानक राजनीतिक दलों ने किसान आंदोलन शुरू कर दिया है। पहले सिंघू बॉर्डर से आंदोलन की खबर आई थी तो गाजीपुर, टिकरी, चिल्ला या शाहजहांपुर-खेड़ा बॉडर से किसानों की खबरें आती थीं। अब सहारनपुर-बिजनौर से प्रियंका गांधी की किसान पंचायत की खबर आ रही है तो राजस्थान से राहुल गांधी के किसान पंचायत लगाने की खबरें आ रही हैं। ध्यान रहे इन दोनों राज्यों में अभी चुनाव दूर हैं पर दोनों भाई-बहन राजनीतिक लाभ लेने के लिए किसान महापंचायत करने लगे हैं। इस वजह से किसान आंदोलन को नुकसान हुआ है। किसानों के आंदोलन से फोकस हट कर उनके ऊपर चला गया है।
इसी तरह राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी किसानों की महापंचायत करने लगे। राजस्थान में कांग्रेस के नेता सचिन पायलट ने किसानों की कई सभाएं कीं। खबर है कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल 28 फरवरी को मेरठ में किसान महापंचायत में हिस्सा लेने जा रहा हैं। इन नेताओं को लग रहा है कि कैसे इस आंदोलन का अधिकतम राजनीतिक लाभ लिया जाए। ये समझ में नहीं रहे हैं कि अपने राजनीतिक लाभ के लिए उन्होंने आंदोलन को ही कमजोर कर दिया। किसान आंदोलन पूरी मजबूती से चल रहा था तो उसका लाभ विपक्षी पार्टियों को भी मिल रहा था लेकिन अब सीधे अपना किसान आंदोलन शुरू करके पार्टियों ने अपना भी नुकसान कर लिया है।