पंजाब के शहरी निकाय चुनावों में कांग्रेस की जीत का केंद्रीय नेतृत्व के लिए बड़ा सबक है। इससे यह साबित हुआ है कि अगर कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व राज्यों की राजनीति में ज्यादा दखल नहीं दे और प्रादेशिक क्षत्रपों को मजबूत करे तो उसे फायदा हो सकता है। असल में पहले भी राज्यों में कांग्रेस के पास मजबूत क्षत्रप होते थे। उनके होने के बावजूद कांग्रेस इसलिए हारी क्योंकि भाजपा ने भी क्षत्रप नेता खड़े किए। गुजरात में नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा के पास एक से ज्यादा मजबूत क्षत्रप थे। लेकिन अब भाजपा के पास राज्यों में मजबूत क्षत्रप बहुत कम बचे हैं और केंद्र की कृपा से या अनुकंपा के आधार पर बहाल हुए नेता ज्यादा हैं। इसलिए अगर कांग्रेस अपने क्षत्रपों को मजबूती दे तो वे भाजपा को टक्कर दे सकते हैं।
कांग्रेस के नेता भूपेश बघेल मजबूत क्षत्रप के तौर पर उभरे हैं और उनके प्रदेश अध्यक्ष रहते कांग्रेस ने भाजपा के 15 साल का राज खत्म किया, उसे निर्णायक रूप से पराजित किया। अशोक गहलोत और सचिन पायलट की कमान में कांग्रेस पांच साल के बाद राजस्थान में वापस सत्ता में लौटी। इसी तरह महाराष्ट्र के क्षत्रपों- अशोक चव्हाण, बाला साहेब थोराट, सुशील शिंदे, पृथ्वीराज चव्हाण आदि ने पांच साल के बाद ही जैसे तैसे पार्टी की सत्ता में वापसी करा दी। लोकसभा में सिर्फ एक सीट जीतने के बावजूद विधानसभा में कांग्रेस 44 सीटों पर जीती। पश्चिम बंगाल में खास असर नहीं होने के बावजूद अधीर रंजन चौधरी की कमान में कांग्रेस मजबूती से लड़ रही है और पिछले चुनाव में भी पार्टी मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरी थी। असम में तरुण गोगोई के रहते कांग्रेस को उम्मीद थी तो कर्नाटक में मल्लिकार्जुन खड़गे, सिद्धरमैया, डीके शिव कुमार आदि ने पार्टी की उम्मीदों को जिंदा रखा है। कांग्रेस इस हकीकत को समझे कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व बहुत मजबूत है और सोनिया-राहुल उसे सीधी टक्कर नहीं दे सकते हैं। पर भाजपा का प्रदेश नेतृत्व कमजोर है और वहां अगर कांग्रेस अपने क्षत्रपों को खुली छूट देती है तो वे भाजपा को टक्कर दे सकते हैं।