टीएमसी की कामयाबी अपने नेता के चमत्कारिक व्यक्तित्व पर ही निर्भर है

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से क़रीब 160 किलोमीटर दक्षिण में एक गर्म दोपहरी में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे हैं.

“आपने उन्हें दस साल तक काम करने का मौक़ा दिया. अब हमें भी एक मौक़ा दीजिए.”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दरअसल पश्चिम बंगाल की फ़ायरब्रैंड महिला नेता ममता बनर्जी की बात कर रहे हैं.

ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस बीते दस सालों से भारत के इस पूर्वी राज्य की सत्ता संभाल रही है.

अनुभवी वक्ता नरेंद्र मोदी भाषण देते-देते लच्छेदार बंगाली बोलने लगते हैं तो सुनने वाली भीड़ को भी हैरत होने लगती है.
प्रधानमंत्री मोदी के निशाने पर ममता बनर्जी ही रहती हैं. ममता को पश्चिम बंगाल में लोग ‘दीदी’ कहते हैं. भारत में इस शब्द के मायने होते हैं बड़ी बहन.

बंगाल में ममता के समर्थकों ने उनके लिए ये ही नाम रखा है.

मोदी कहते हैं, “दीदी, ओ ममता दीदी, तुम हमें बाहरी कहती हो, लेकिन बंगाल की भूमि किसी को बाहरी नहीं मानती हैं. यहां कोई बाहरी नहीं है.”

पश्चिम बंगाल के चुनावी महासंग्राम में ममता बनर्जी ने बंगाली और बाहरी (अधिकतर हिंदी भाषी बीजेपी, जो केंद्र में सत्ता में है) को लोगों के बीच लड़ाई बना दिया है.

66 साल की ममता बनर्जी एक साथ ही संघवादी और स्वदेशी भावनाओं का दोहन कर रही हैं.

राजनीति के जानकर कहते हैं कि ताक़तवर संघीय पार्टी को अलग करके दिखाने की जड़ें भारत में संघवाद की राजनीति में ही हैं.

कुछ लोग बीजेपी पर ‘संकीर्ण, भेदभाववादी और बांटने वाली राजनीति को बंगाल में लाने’ का आरोप भी लगाते हैं.

दलों के दावों और वादों के बीच, चार सप्ताह तक आठ चरणों में होने वाले बंगाल चुनाव में इस बार मुक़ाबला बेहद कड़ा है. पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजे बाक़ी अन्य राज्यों के साथ दो मई को घोषित होंगे.

हाल के सालों में ये भारत का सबसे अहम और रोचक चुनावी मुक़ाबला भी है.

9.2 करोड़ की आबादी वाले पश्चिम बंगाल में कभी भी प्रधानमंत्री मोदी की पार्टी बीजेपी सत्ता में नहीं रही है.

ममता बनर्जी साल 2011 में पश्चिम बंगाल में 34 सालों से शासन कर रही वामपंथी सरकार को हटाकर सत्ता में आईं थीं. तब से वो लगातार राज्य की मुख्यमंत्री हैं.

राज्य की 295 में से 211 सीटें इस समय ममता बनर्जी की टीएमसी के ही पास हैं.

टीएमसी की कोई ख़ास विचारधारा नहीं

एक पार्टी के तौर पर टीएमसी का ढांचा बहुत मज़बूत नहीं है और ना ही पार्टी में सख़्त अनुशासन है. पार्टी की कोई ख़ास राजनीतिक विचारधारा भी नहीं है.

भारत की अन्य क्षेत्रीय पार्टियों की तरह टीएमसी भी कामयाबी के लिए अपने नेता के चमत्कारिक व्यक्तित्व पर ही निर्भर है.

2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने राज्य की 42 में से 18 लोकसभा सीटें जीतकर यहां अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज करा दी थी.

पार्टी को राज्य में 40 फ़ीसद वोट भी मिले थे.

वहीं ममता बनर्जी की पार्टी सिर्फ़ 22 सीटों पर सिमट गई थी जो 2014 के मुक़ाबले 12 कम थीं.

राजनीतिक टिप्पणीकार कहते हैं, “ये ममता बनर्जी के लिए नींद से जागने का समय था. 2021 चुनाव उनके लिए अस्तित्व की लड़ाई बन गया है.”

यदि बीजेपी पश्चिम बंगाल जीत लेती है तो इससे पार्टी के हौसलों में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होगा. प्रधानमंत्री मोदी भले ही आज भी देश के सबसे चर्चित नेता हों, हाल के सालों में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी संघर्ष करती ही नज़र आई है.

पश्चिम बंगाल में एक तिहाई आबादी मुसलमानों की है. ऐसे में यहां हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी की जीत के प्रतीकात्मक मायने भी होंगे.

इससे साल 2024 के लोकसभा चुनावों में भारत के तितर-बितर विपक्ष के प्रधानमंत्री मोदी की पार्टी को कोई ख़ास टक्कर देनें की उम्मीदें भी टूट जाएंगी.

बीजेपी इस समय बेहद व्यवस्थित है और उसके पास फ़ंड की भी कोई कमी नहीं हैं. पश्चिम बंगाल में हार के बाद विपक्ष और भी कमज़ोर हो जाएगा.

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