सामाजिक न्याय का अग्रदूत : डॉक्टर भीमराव अंबेडकर
लोकप्रिय भारतीय विधिवेक्ता, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक: सामाजिक न्याय का अग्रदूत बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के इंदौर जिले के महू नामक गांव में हुआ था। ऐसा लगता है कि बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का सामाजिक न्याय के बारे में सोचने की प्रेरणा स्वयं उनके द्वारा सामाजिक अन्याय के प्रहार को भोगने से प्राप्त हुई, जिसका स्वयं उन्होंने डटकर सामना भी किया। वे चिंतन करते हुए प्रश्न करते हैं कि विश्व के अनेक देशों में सामाजिक क्रांतियां हुई, परंतु भारत में सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई यह प्रश्न लगातार उन्हें बेचौन करती थी। जब वे इस सवाल का जवाब ढूंढते तो उन्हें एक ही जवाब मिलता था, वह था अधम जातिप्रथा।
डॉ अंबेडकर ने अनेक महान् विद्वानों के सामाजिक दर्शन, चिंतन का गहन अध्ययन किया। मनु की मनुस्मृति की वर्ग व्यवस्था, प्लेटों की एक ही वर्ग के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किए गए स्कीम, थ्रेसीमैक्स ने न्याय को शक्तिशाली वर्ग के हितों के साथ जोड़ा और विचार दिया- न्याय शक्तिशाली के हितों की रक्षा है। वहीं नित्से कहता है- अतिमानव अथवा सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति जो कहता है, वही शुभ उचित व न्याय है। उपर्युक्त सभी विद्वान के विचार में क्या आपको कोई ऐसे तत्व मिलते हैं, जो सामाजिक न्याय के आदर्श को संतुष्ट करते हैं। इन सभी विचारों में सामाजिक न्याय के मुख्य केंद्र बिंदु एक विशेष वर्ग ही रहा है और उनके सामाजिक दर्शनों में एक ही विशेष वर्गों के हितों का गुणगान, यशोधन किया गया है और अन्य सभी वर्गों को उनके अधीन रखा गया है। यहीं पर उन्होंने प्रोफेसर बर्गबान के न्याय संबंधी विचारों का भी अध्ययन किया और उनके सिद्धांत से सहमत हुए और कहा वे अपने न्याय संबंधी सिद्धांत में उन सभी सिद्धांतों को सम्मिलित करते हैं, जो नैतिक व्यवस्था की आधारशिला बन चुकी है । मार्क्स, ऐगल्स, लेनिन जैसे विचारकों द्वारा न्याय के वर्ग चरित्र की रूपरेखा भी प्रस्तुत किया गया जो सर्वहारा वर्ग की वकालत करती है। यहीं पर डॉक्टर अंबेडकर ने गांधी जी के सर्वोदय सामाजिक न्याय को भी नकारा जिसका कारण गांधीवाद का मूल आधार वर्णाश्रम धर्म का उपस्थित होना है। उनका मानना था सामाजिक न्याय में धर्म की भूमिका अहम होती है] जबकि मार्क्सवादी विचार में सामाजिक धर्म की उपस्थिति को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया है।
बाबा साहब डॉ अंबेडकर की सामाजिक न्याय स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का दूसरा नाम ही है। स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्वभाव, ये बुद्ध व जैन धर्म के सार त्रिरत्न के समान हैं, परंतु यह पृथक -पृथक न होकर एक त्रयी एकता का निर्माण करती है। जिसके पालन से समता मूलक समाज का निर्माण होगा और समाज में द्वेष, उच- नीच, छल–कपट, व्यभिचार के लिए कोई स्थान ही नहीं बचेगा। बाबा साहब ने मानव व्यक्तित्व के निर्माण में स्वतंत्रता की भूमिका को महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार स्वतंत्रता से व्यक्तियों में छिपी हुई विचार, कला साहित्य आदि प्रतिभाएं बाहर आती है, जो उनके भविष्य का निर्माण करती है तथा समानता मानव को मानव, समूह को समूह, समुदाय को समुदाय से बांधकर एकता के सूत्र में पिरोकर उनके बीच सहयोग की भावना जागृत कर आपसी संबंध और सामाजिक सद्भाव स्थापित करती है। भाईचारे/भातृत्व का अर्थ स्पष्ट करते हुए बाबा साहब कहते हैं – स्वतंत्रता व समानता के लिए भातृत्व उपयुक्त वातावरण उत्पन्न करती है, भातृत्व तो सभी भारतीयों के लिए एक सामान्य भाईचारे की भावना है, सभी भारतीय एक राष्ट्र है।
डॉ अंबेडकर के सामाजिक न्याय के विचार के मुख्य तत्व हैं- सम्मान पूर्वक रहे और रहने दें, सभी को मान- सम्मान मिले, किसी के प्रति हिंसा न की जाए, विधि के समक्ष समता, समान अधिकारों की स्वीकृति, संवैधानिक शासन के प्रतिनिष्ठा पूर्वक रहना, कुछ प्राथमिकताओं सहित समान अवसरों की सुलभता, संपत्ति शिक्षा की उपलब्धता और अंततः स्वतंत्रता, समता तथा राष्ट्रीय एकता सहित मानव व्यक्तित्व की गरिमा को बनाए रखना। बाबा साहब की सामाजिक न्याय का सीधा-सीधा संबंध भारत की एकता अखंडता से है। जहां पर चाहे वह हिंदू हो, जैन, बौद्ध, यहूदी, पारसी, मुस्लिम, इसाई, सभी इस मातृभूमि में रहने वाले नागरिक सामान्यतः भाई-भाई हैं। आगे कहते हैं सामाजिक न्याय का मापदंड केवल भौतिक प्रगति ही नहीं बल्कि मानव मूल्यों तथा आधारों की बहुलता है, जिनसे समाज की व्यवस्था न्यायोचित बने और राष्ट्रीय जीवन में समरसता की दिशा में अभिवृद्धि हो। उन्होंने सामाजिक न्याय में उन लौकिक एवं नैतिक तत्वों को अधिक महत्व दिया है, जिनका सीधा संबंध मानव जाति की भलाई से है। यदि हम बाबा साहब के सामाजिक न्याय का दर्शन, विचार, चिंतन का अध्ययन करें तो यही तथ्य प्राप्त होता है। वह किसी वर्ग विशेष की नहीं बल्कि पूरे प्राणी जगत में समता, सम्मान का विचार व्यक्त करता है।
(यह लेख विभिन्न पुस्तकों, शोध, लघु शोध प्रबंधों से लिया गया है)
मनहरण कुमार लहरे
शोधार्थी- इतिहास अध्ययनशाला,
पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि., रायपुर छ.ग.