आवारा कलम से
(जंगल)
शहरों से दूर–दूर और पहाड़ों की तराई के आस-पास हरियाली से भरपूर जगह को ही पहले जंगल नाम से परिभाषित किया जाता था परन्तु अब इस परिभाषा में परिवर्तन दिखने लगा है। जंगलों के आसपास होटलों में आलीशान शादियां और बीच जंगल में मंगल करते नवधनाड्यों की बढ़ती संख्या भले ही वन प्रबंधन की टीआरपी को बढ़ा रही हो, आमदनी को बढ़ा रही हो मगर वन्य जीवों की शांति को घटा रही है।
कोई भी सेंचुरी या पार्क देखो तो लगेगा कि अब तो आज के जंगल भी शहरों को मात दे रहे हैं। यहां सड़कें हैं, बिजली है, मोबाईल टावर है, स्कूल, अस्पताल हैं, पक्के मकान, स्टार प्राप्त होटल हैं यानि जंगल में तो बस अब मंगल ही मंगल है।
हां! शहरों का स्वरूप जरुर पुराने जंगल जैसा दिखने लगा है। इधर से उधर तक पसरी पड़ीं दुकानें, मनचाही पार्किंग, हाथठेला वालों कि चहल कदमी, बिना नम्बर के दौड़ते ऑटो, निडर खड़े मवेशी और निठल्ला ट्राफिक, फिर ऊबड़-खाबड़ सड़कें, उस पर अंगद पैर सा जमा कर खड़े कई कण्डम वाहन, फुटपाथों पर दंबगों की दबंगई सब मिला कर मजेदार दृश्य पैदा करते हैं।
जंगल के जानवर भी भ्रमवश अव्यवस्थित शहर को जंगल समझकर यहां विचरण करने आते हैं तब उसी जानवर को हम सभी आदमखोर, पागल या फिर भटका हुआ कह कर अपने आप को सभ्य होने का सबूत बताते हैं।
जंगल में वनाधिकार पट्टा और आवास की कई नईं योजनाओं के हितग्राही भले ही एक बसाहट बना चुके हों मगर वन्य जीवों को वे उजाड़ रहे हैं। बोट की चोट से जंगल का हर जानवर अब घायल है। कोदो खा कर हाथी मरे और ममता के बिछोह से गजानन का शिशु भी चल बसा, मगर इस हादसे से भला किसी सभ्य को कोई फर्क पड़ा नहीं पड़ा, कोदो की फफूंद लगी फसल हाथी खा कर मर गये, ऐसा सरकारी बन्दों का कहना है जबकि गांव का निपट अनाड़ी बृजनंदन का कहना है कि हम गजानन को फफूंदी रोटी खिलायें तो वह गर्दन मोड़ कर आगे बढ़ जाता है। पुराणों में जिस गणपति की व्याख्या बुद्धिमान देवता के रुप में की गई उसे सरकारी तंत्र ने इतना मूर्ख प्रमाणित कर दिया कि एक दो ही नहीं दस-दस हाथी फफूंद लगी कोदो की ओव्हर ईटिंग कर गये।
इसकी प्रमाणित रिपोर्ट उनके पास है जो जंगल के मालिक हैं पर वे खुद कभी जंगल में रहते नहीं हैं। शहरी जीवन अपनी अति महत्वाकांक्षाएं पूरा करने में इस कदर व्यस्त है कि उसे यह भी नहीं मालुम कि इन्हीं सरकारी वन पालकों के रहते पिछले पांच महीने में बिजली के तार का फंदा लगा कर अदृश्य शिकारी 884 जीवों का शिकार कर उन्हें मौत के घाट उतार चुके। अगर पिछले एक दशक के सरकारी आंकड़े देखें तो स्थिति भयावह लगती है।
हमने पार्क बनाया तो वन्य जीवों को पालने तथा उनकी रक्षा करने आकाश फाड़ कर दैवीय शक्ति आयेगी? कूनों पार्क में 30 नाईजीरियाई बाघों में से 15 बाघ मर गये। तंत्र खामोश रहा उसी कूनो पार्क में जब बाघ शावकों की खबर मिली यही तंत्र दुंदुंभी बजाने लगा। बांधवगढ़ ने भी कम बाघ नहीं खोये, यहां भी दो दर्जन से ज्यादा बाघ बिछुड़ गये पर किसी को क्या फर्क पड़ता है?
मजाल क्या है कि वन्यजीवों की सुरक्षा में लापरवाही का दोषी ठहरा कर आज तक एक भी डी एफ ओ सस्पेंड किया गया हो? अब तो जानवरों के ठेकेदार ही जानवरों की जान के दुश्मन लगने लगे, वे अपना वक्त जंगल में नहीं खपाते, जंगल से कमाते हैं।
करोड़ों पौधों का हर मानसूनी दस्तक पर रोपण कराने वाले ये वन पालक बता सकते हैं कि वनों का रकवा दिनों-दिन घट क्यों रहा है? जंगलों में ठूंठ की संख्या बढ़ कैसे रही? वनग्राम समितियां और वन सुरक्षा समितियों को कौन सा काम सौंपा गया, उन्हें कब प्रशिक्षण दिया गया, कब समीक्षा की गई, उनका पुनर्गठन किस आधार पर और कब किया गया?
लघुवन उपज क्यों घट रही है, मात्र तेंदूपत्ता छोड़ कर कत्था, आंवला, अचार, चिरौंजी, तेंदूं, करौंदा आदि दर्जनों फलदार प्रजातियां लुप्त हो गई। इमारती लकड़ी में अब साल, सागौन, सरई जैसी प्रजातियों पर गहरा संकट है फिर भी हम ना जानें किस ख्वाब में उन्नति की उड़ान भरने में लगे हैं? इतना तो साफ है कि जंगल नहीं रहे तो जीवन भी साफ है।