राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव में शोधार्थियों ने शोध पत्र प्रस्तुत किए
रायपुर, 19 अप्रैल 2022/राजधानी में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव में देश के विभिन्न भागों से आए शोधार्थियों ने ’’जनजातीय साहित्य: भाषा विज्ञान एवं अनुवाद, जनजातीय साहित्य में जनजातीय अस्मिता एवं जनजातीय साहित्य में जनजातीय जीवन का चित्रण’’ विषय पर अपने शोध पत्र पढ़े। शोधार्थियों ने जनजातियों की भाषा, संस्कृति के मानकीकरण और संरक्षित करने की आवश्यकता जतायी तथा भाषा-संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम के प्रथम सत्र में प्रसिद्ध विद्वान डॉ. के.एम. मैत्री ने गोंडी भाषा लिपियों के मानकीकरण में आधारभूत व्याख्यान देते हुए कहा कि गोंडी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल कराए जाने की और अधिक प्रयासों की आवश्यकता है। गोंडी भाषा भारत के आदिवासियों की भाषाओं में प्रमुख स्थान रखती है। मध्य भारत में इसे संपर्क भाषा के रूप में उपयोग करते हैं।
उन्होंने कहा-कुछ गोंडी विद्वानों का मत है कि गोंडी देश की सबसे पुरातन भाषा है और द्रविड़ भाषाओं की जननी है। इस में कन्नड़, तेलगू, तमिल, मलयालम ये भाषाएं भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में सम्मिलित है, जबकि ब्राहुई, माल्तो, कुरूख, गोंडी, परजी, मुंडा, पेंगो, कुई, कुवि, कोंड, गदबा, नाइकी, बडग, तोडा, तुलू, कोडवा, कोता, इरूला ये बोली भाषाएं 8वीं अनुसूची में सम्मिलित नहीं हुई है। इनमें बहुत सारे भाषाएं विनाश के तट पर है। श्री मैत्री ने कहा अगर यह सभी सामुदायिक भाषाएं विनाश हो जाते हैं तो साथ में उन जनों का संस्कृति भी विनाश हो जाती है। इसलिए यह विनाश होने से पहले इन भाषाओं और उन लोगों के अध्ययन करना जरूरी है।
डॉ. के.एम. मैत्री ने बताया कि गोंडी भाषा से कई राजभाषाएं निकली हुई हैं और उन पर आधारित कई राज्यों का निर्माण भी हुआ है, जिसमें कन्नड़, तमिल, तेलगू इत्यादि प्रमुख है। इन राज्यों में भी गोंडी बोली जाती है, जिन पर क्षेत्र का भी प्रभाव दिखता है। यह अच्छी बात है गोंडी भाषा की डिक्शनरी बनाने का प्रयास हुआ है। साथ ही ऐसी डिक्शनरी बनाने की आवश्यकता है, जो इनसे संबंधित राजभाषाओं में बोली जाने वाली गोंडी बोली के शब्दों को भी शामिल किया जाए। डॉ. मैत्री ने कहा कि अभी अलग-अलग क्षेत्रों में गोंडी भाषा की चार लिपियां इस्तेमाल की जा रही है, जिसे संबंधित क्षेत्र के रहवासी गोंडी भाषा की लिपि मान रहे हैं मगर किसी भी भाषा की एक ही लिपि हो सकती है। अतः उन क्षेत्रों के निवासियों से चर्चा कर उन्हें समझाना होगा और गोंडी भाषा की एक लिपि, व्याकरण बनानी होगी। उन्होंने कहा कि गोंड आदिवासी समाज तथा अन्य आदिवासी समाज के घोटुलों में कई शैल चित्र बने हैं, जो गोंडी भाषा की लिपि को प्रदर्शित करते हैं। इसी तरह विभिन्न क्षेत्रों के गोंड आदिवासी समाज के टोटम के विशेष संकेत चिन्ह से प्रदर्शित होते हैं। यह संकेत गोंडी भाषा की लिपि से जुड़े हुए हैं। विशेषज्ञों को घोटुल में प्रदर्शित लिपि के संकेतों और टोटम के संकेतों को एकीकृत करके अध्ययन करने की आवश्यकता है।
इसके अलावा डॉ. अभिजीत पायेंग ने ‘‘पूर्वोत्तर भारत की मिसिंग जनजाति के भाषा, साहित्य और संस्कृति: एक अवलोकन’’, डॉ. प्रमोद कुमार शुक्ला और डॉ. प्रियंका शुक्ला ने ‘‘डिपिक्शन ऑफ ट्राइबल आइडेंटिटी इन ट्राइबल लिटेरचर’’, श्री गिरीश शास्त्री एवं डॉ. कुंवर सुरेन्द्र बहादुर ने ‘‘जनजातीय साहित्य और संस्कृति में मानवीय मूल्यों का समीक्षात्मक अध्ययन’’, डॉ. हितेश कुमार ने ‘‘लोकभाषा हलबी का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’’ तितन बेलचंदन और सीमा डिलीवर्ब ने ‘‘विल्डर्नेस इन द पब्लिक आई-लाइफ ऑफ बस्तर टाइगर बॉव्य’’, श्री डी.व्ही. प्रसाद और बिन्दु साहू ने ‘‘सिग्निफिकेशन ऑफ इंडीजेनस फर्मेन्टेड बेवर्जेस इन बिसन हॉर्न मारिया लाईफ’’, सूर्यबाला मिश्रा ने ‘‘जनजातीय साहित्य में व्यक्त-सामाजिक व सांस्कृतिक विपन्नता’’ श्री दिनेश अहिरवार ने ‘‘आदिवासी हिन्दी कविताओं में अस्मिता संकट और चुनौतियां’’, श्री नरेश कुमार गौतम ने ‘‘आदिवासी समाज और विकास की राजनीति’’, श्री तरूण कुमार ने ‘‘जंगल के फूल उपन्यास में अभिव्यक्त आदिवासी समाज के मानवीय मूल्य’’, श्री अजित कुमार ने हिन्दी आलोचना: आदिवासी समाज और उनका जीवन’’ विषय पर और अन्य शोधार्थियों ने अपने-अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए। इस अवसर पर राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव के अध्यक्ष प्रो. चितरंजन कर भी उपस्थित थे।